Arshad Warsi as Banda Singh Chowdhary:अरशद वारसी बच्चन पांडे के बाद बड़े परदे पर दिखायी देने वाले है। अरशद वारसी को हम अक्सर कॉमेडी फिल्मो में देखते आये है। पर अबकी बार अरशद एक गंभीर और सच्ची घटना पर आधारित विचारशील किरदार को निभाने जा रहे है। हम इस आर्टिकल में आपको बतायेगे बंदा सिंह चौधरी की असल ज़िंदगी के बारे में।
1971 में भारत और पाकिस्तान में युद्ध हुआ जिसमे बंगलादेश को सवतंत्रा मिली इस लड़ायी का असर बस भारत और पाकिस्तान तक ही नहीं था। बल्कि इसने पंजाब के साथ ही सारे देश में उथल पुथल मचा दी थी। ये वो वक़्त था जब पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन तूल पकडे हुए था। इसी की वजह से साम्प्रदायिक तनाव और दंगे बढ़ते जा रहे थे।
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यही से बंदा सिंह चौधरी का नाम बाहर निकल कर आता है। ये अपने गांव के साथ धर्म की रक्षा के लिये खड़ा होता है। 1971 का साल भारत और पाकिस्तान के युद्ध के साथ-साथ पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन भी तेज़ी से फल फूल रहा था। खालिस्तानी चाहते थे के उनको अलग स्वतंत्र खालिस्तानी देश बना दिया जाये। इसके लिए इन्होने हिंसा का सहारा लेकर हिन्दू समुदाय को खास कर निशाना बनाया।
इन्होने हिन्दुओ को पंजाब छोड़ने की धमकी भी दी। इसी वक़्त एक छोटे से गांव का लड़का बंदा सिंह चौधरी अपने गांव और धर्म की रक्षा करने के लिये उठा। बंदा सिंह चौधरी में जो सबसे बड़ी बात थी वो थी इसकी निडरता और लीडर शिप जिसकी वजह से बाँदा सिंह चौधरी एक सच्चा योद्धा बना।
ये एक आम किसान थे पर इनका दिल बहुत बड़ा था ये अपने गांव के लिए एक मज़बूत दिवार की तरह थे। ये गांव वालो का अच्छे से मार्गदर्शन करते और साथ ही आर्थिक मदद भी किया करते थे।
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बंदा सिंह चौधरी का गांव भी खालिस्तानी के निशाने पर था। इस गांव के सभी हिन्दू परिवारों को धमकी दी जा रही थी गांव छोड़ने की। अगर हिन्दू पंजाब नहीं छोड़ेगे तो उन्हें मार दिया जायेगा। इस डर से बहुत से लोग गांव छोड़ कर जाने लगे बहुत से लोगो ने गांव छोड़ना शुरू कर दिया। पर वही बंदा सिंह चौधरी ने इनके सामने झुकने से इंकार कर दिया।
बंदा सिंह चौधरी ने सबको इकट्ठा किया और समझाया के हम अपनी जन्म भूमि को छोड़कर भला क्यों जाए ये हमारी जन्म भूमि और कर्म भूमि है हमारे पूर्वज इसी जमीन पर पैदा हुए हम इसे छोड़कर कही नहीं जायेगे । खालिस्तानियों के पास अधिक मात्रा में हथियार थे जो पाकिस्तान उन्हें दे रहा था।खालिस्तानियों को पाकिस्तान का पूरा स्पोर्ट था।
बंदा सिंह चौधरी ने ठान लिया था के वो अपनी और अपने गांव की रक्षा करेंगे इसके लिये चाहे उन्हें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। बंदा सिंह चौधरी ने गांव के युवा को एक साथ इकट्ठा कर के लड़ाई के लिये प्रेरित किया।
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सभी को सिखाया के अगर हमला होता है तो किस तरह से उसका जवाब देना है। बंदा सिंह चौधरी ने अपने गांव को एक मज़बूत दिवार में बदल दिया जिसमे हर एक इंसान खुद को सुरक्षित करने के लिये पूरी तरह से तैयार हो गया था।
खालिस्तानियों के द्वारा दी गयी चेतावनी के बाद गांव के सिख भी यही चाह रहे थे के हिन्दू गांव छोड़ कर चले जाए। क्युकी गांव के सरदार अपने दोस्तों को ऐसे मरते देखना नहीं चाहते थे।
बाँदा सिंह चौधरी के द्वारा खालिस्तानी के विरुद्ध खड़े होने की खबर जैसे ही गांव में रहने वाले सरदारों को लगी तब गांव के सभी सरदार बंदा सिंह चौधरी के साथ एक जुट हो कर खड़े होगये।
खालिस्तानियों के बार बार कहने के बाद भी जब गांव से हिन्दू नहीं गए तब खालिस्तानी आग बबूला हो उठे। फिर एक दिन खालिस्तानियों नेबंदा सिंह चौधरी के गांव पर हमला कर दिया। इन लोगो ने गांव को चारो तरफ से घेर लिया था। इन्होने ये सोचा के इनके हथियारों को देख पूरा गांव इनके कदमो में गिर जाएगा।
पर इनको ये नहीं पता था के बाँदा सिंह चौधरी की टीम पूरी तरह से लड़ने के लिए तैयार थी। बाँदा सिंह चौधरी और इनके साथियो ने बहादुरी से मुकाबला किया जिससे खालिस्तानियों को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा।
इस लड़ाई में बहुत से लोग घायल हुए पर बंदा सिंह चौधरी के कारण किसी को भी गांव छोड़ कर नहीं जाना पड़ा। बंदा सिंह चौधरी की ये जीत उन लोगो के लिए प्रेरणा बनी जो लोग खालिस्तानी के आतंक के साये में जीने के लिए मजबूर थे।
इससे समाज में ये सन्देश गया के खालिस्तानियों के सामने घुटने टेकना ही एक मात्र विकल्प नहीं है बल्कि निडर होकर इनका मुकाबला भी किया जा सकता है।
चाहे जैसे भी हालात हो अगर हम अपने अधिकारों और धर्म की रक्षा के लिए खड़े होते है तो किसी भी समस्या का सामना आसानी से किया जा सकता है।