Inn Galiyon Mein hindi review: आज 14 मार्च 2025 के दिन बॉलीवुड इंडस्ट्री में जहाँ एक ओर जॉन अब्राहम की बड़ी फिल्म “द डिप्लोमैट” ने दस्तक दी। वहीं दूसरी ओर डायरेक्टर अविनाश दास की फिल्म “इन गलियों में” भी रिलीज़ हुई है। इस फिल्म के मुख्य किरदारों में “जावेद जाफरी” “अवंतिका दासानी” और “विवान शाह” जैसे कलाकार नज़र आते हैं।
कहानी की बात करें तो यह लखनऊ की तंग गलियों में बसने वाले दो पक्षों के आपसी विवाद और उनके एक दूसरे के बिना न रह पाने की भावना पर आधारित है। चलिए जानते हैं कि यह फिल्म क्या लेकर आई है और इसका रिव्यू करते हैं।

विस्तृत जानकारी:
कास्ट: जावेद जाफ़री,अवंतिका,विवान शाह
फ़िल्म की लम्बाई: 1 घंटा 40 मिनट
कहाँ देखे: सिनेमाघर
निर्देशक: अविनाश दास
कहानी:
फिल्म की शुरुआत होती है लखनऊ की उन गलियों से जहाँ सालों से हर मज़हब के लोग एक साथ रहते आए हैं। यहाँ ईद का जश्न हो या होली के रंग सब कुछ मिल जुलकर मनाया जाता रहा है। मस्जिद की अज़ान हो या मंदिर की घंटियाँ सब अपनी जगह व्यवस्थित चल रहा था। लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब चुनावी हवा इस शहर और इसकी गलियों में अपने पैर पसारने लगती है।
कहानी का केंद्र है अर्जुन यादव (विवान शाह) जो सब्जी बेचने का काम करता है और इसी गली में रहता है। उसका सपना है कि वह एक दिन अपनी सब्जी की दुकान खोले। दिन में मेहनत और रात में टिकटॉक वीडियो बनाकर दोस्तों के साथ समय बिताना उसकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा है।

लेकिन उसे नहीं पता कि उसकी ज़िंदगी में रंग भरने वाले हैं वो भी उसी गली की नाज़िया (अवंतिका दासानी) के ज़रिए। नाज़िया बचपन से अनाथ है और अपने चाचा मुन्ना खान (जावेद जाफरी) की चाय की दुकान पर हाथ बँटाती है। अर्जुन की नादानियों पर वह खूब हँसती है और दोनों के बीच प्यार पनपने लगता है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। कहानी में राजनीति का एंगल तब जुड़ता है जब चुनाव नज़दीक आते हैं। विजय प्रताप सिंह नाम का एक पॉलिटिशियन (एक रंगीन किरदार) अपने वोट बैंक के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। दंगे करवाना हो या हिंदू मुस्लिम एकता को तोड़ना वह सब कुछ करता है। दूसरी ओर एक पागल बाबा भी है जो सच बोलने की हिम्मत रखता है जो आम लोग नहीं कह पाते।

कहानी तब और उलझती है जब “विजय” अर्जुन और नाज़िया के पवित्र प्यार को सोशल मीडिया पर धार्मिक रंग देकर वायरल कर देता है। दोनों के फोटोज़ को गलत तरीके से पेश किया जाता है। जिससे गली में नफरत का माहौल फैल जाता है। हिंदू मुस्लिम एकता पर इसका बुरा असर पड़ता है। अब सवाल यह है कि क्या अर्जुन और नाज़िया एक दूसरे से जुदा हो जाएँगे? क्या यह पॉलिटिशियन अपने फायदे के लिए उनकी मोहब्बत की बलि चढ़ा देगा? जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
फिल्म की अच्छाइयाँ:
इन गलियों में की कहानी भले ही कोई नया कॉन्सेप्ट न लेकर आए। लेकिन इसे जिस तरह से पेश किया गया है वह बेहद नेचुरल और ज़मीन से जुड़ा हुआ लगता है। कलाकारों की बात करें तो जावेद जाफरी की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। मुन्ना खान के रोल में उनकी कॉमिक टाइमिंग और इमोशनल गहराई कमाल की है।
अवंतिका और विवान ने भी अपने किरदारों को बखूबी निभाया है। फिल्म की दूसरी बड़ी खूबी है इसका कंट्रोवर्शियल मुद्दों को साफ सुथरे ढंग से पेश करना। बिना किसी की भावनाएँ आहत किए यह संदेश देती है कि नफरत और धर्म से ऊपर इंसानियत है। “गलियों में प्यार ही रहना चाहिए नफरत नहीं”। सिनेमैटोग्राफी भी लखनऊ की गलियों को जीवंत करती है जो कहानी को और असरदार बनाती है।
फिल्म की कमियाँ:
फिल्म की लंबाई थोड़ी ज़्यादा है जिसके चलते कुछ सीन खिंचे हुए लगते हैं,जिसमे कई बार बोरियत भी महसूस हो सकती है। म्यूज़िक की बात करें तो वह काफ़ी औसत है अगर इसे और कम रखा जाता, तो भी काम चल जाता क्योंकि यह कोई म्यूज़िकल फिल्म नहीं है।
एक बड़ी कमी यह भी है कि फिल्म को सिनेमाघरों में रिलीज़ किया गया। इस तरह की स्टारकास्ट और कहानी के साथ इसे ओटीटी पर लाया जाता तो शायद इसे और भी ज़्यादा दर्शक मिलते।
“डी डिप्लोमैट” जैसी बड़ी फिल्म के साथ रिलीज़ करना गलत फैसला साबित हो सकता है। इससे सिनेमाघरों में स्क्रीन्स कम मिलेंगी और फिल्म का असर कम हो सकता है।
निष्कर्ष:
अगर आप इस होली के मौके पर ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जिसे फैमिली के साथ बैठकर इंजॉय कर सकें तो “इन गलियों में” को एक मौका ज़रूर दे सकते हैं। इसी हफ्ते रिलीज़ हुई “डी डिप्लोमैट” भले ही अलग कॉन्सेप्ट पर बनी हो लेकिन वह फैमिली ऑडियंस के लिए उतनी सूटेबल नहीं। ऐसे में फिल्म इन गलियों में को फायदा हो सकता है।
फिल्मीड्रिप रेटिंग :२.५ /५