सुमति वलावु एक ऐसी फिल्म है जो हॉरर और कॉमेडी को मिलाने की कोशिश करती है, लेकिन ये मिक्सर हमेशा सही नहीं बैठता। ये मूवी 1990 के दशक में केरल के एक गांव कलेली में सेट है, जो तमिलनाडु की सीमा से लगा हुआ है और जंगलों से घिरा हुआ है , यहां एक खास मोड़ है जिसे सुमति वलावु कहते हैं जहां लोग मानते हैं कि एक औरत सुमति की आत्मा रात में किसी को वहां से गुजरने नहीं देती।
फिल्म की कहानी मुख्य किरदार अप्पू की जिंदगी के इर्द-गिर्द घूमती है, जो इसी मोड़ और उससे जुड़ी डरावनी घटनाओं से जा कर जुड़ता है। निर्देशक विष्णु शशि शंकर और लेखक अभिलाष पिल्लई की ये दूसरी फिल्म है, मलिकप्पुरम के बाद और इसमें अर्जुन अशोकन लीड रोल में हैं। शुरूआत में 1960 के दशक का एक सीन आत्मा की ताकत दिखाता है जो काफी बढ़िया लगता है, लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है वो अपना बैलेंस खो देती है।
അർജുൻ അശോകൻ എത്ര മാന്യമായിട്ടാണ് മാറിനിൽക്കാൻ പറയുന്നത് 🤯 | sumathi valavu movie pic.twitter.com/eerZz7z2aZ
— Neelakkuyil Entertainments (@Neelakkuyil4u) August 2, 2025
कहानी की कमजोरियां
फिल्म की कहानी एक पारिवारिक ड्रामा है जो 90 और 2000 के दशक की जयराम वाली फिल्मों की याद दिलाती है, लेकिन इसमें हॉरर का ट्विस्ट जोड़ा गया है। फिल्म में अप्पू और उसके दोस्त की बहन के बीच का पुराना झगड़ा और अब अप्पू का उसके कजिन से प्यार,इसकी कहानी को आगे ले जाता है।
लेकिन समस्या ये है कि स्क्रिप्ट में हॉरर और कॉमेडी का बिगड़ता हुआ ताल मेल साफ नजर आता है। कई सीन बिना किसी मुद्दे के लगते हैं और फिल्म का ज्यादातर हिस्सा सुमति वलावु के बजाय दूसरी चीजों पर फोकस करता है।
मूवी में अगर ये मोड़ या आत्मा की कहानी न होती तो भी इसका प्लॉट कुछ ज्यादा नहीं बदलता, जो ये सवाल उठाता है, कि क्या इस फिल्म का ये टाइटल दर्शकों को सिर्फ अपनी तरफ खींचने के लिए रखा गया है ? इंटरवल से पहले का सीन अच्छा है जहां साउंड मिक्सिंग से भूत का भ्रम पैदा किया गया है।
कलाकारों की परफॉर्मेंस
अर्जुन अशोकन अप्पू के रोल में फिट बैठते हैं क्योंकि वो ऐसे लड़के का किरदार निभाने में माहिर हैं जो थोड़ा हिम्मत वाला है लेकिन थोड़ा डरपोक भी। बालू वर्गीज उनके दोस्त के रूप में ठीक हैं और मालविका मनोज ने भामा का किरदार ह्यूमर के साथ अच्छे से निभाया।


गोकुल सुरेश ने बढ़िया तरीके से अपना रोल किया है जो सुनील गावस्कर की तरह लगता है। सिद्धार्थ भारथन चेम्बन के रूप में कुछ राहत देते हैं लेकिन श्रवण मुकेश का विलेन रोल काफी कमजोर है, जो हाल की कुछ मलयालम फिल्मों की खराब परफॉर्मेंस से मुकाबला करता है।
बाल कलाकार देवानंदा और श्रीपथ ने बड़े डायलॉग बिना अटके बोले हैं जो सराहनीय है, मूवी में सैजू कुरुप, शिवदा और अन्य कलाकार भी हैं।
निर्देशन और स्क्रीनप्ले की खामियां
विष्णु शशि शंकर का निर्देशन स्क्रिप्ट की कमजोरियों को छिपा नहीं पाता फिल्म में कई सीन सोप ओपेरा जैसे लगते हैं, जहां बिना वजह बच्चे कलाकारों को दिखाया जाता है या यूँ कहें की सभी मुख्य किरदारों को एक साथ ठूंस दिया जाता है।
अभिलाष पिल्लई का लेखन पुराने फॉर्मूले पर चलता है जैसे इंट्रो सॉन्ग, रोमांटिक गाने और हीरोइक फाइट लेकिन फिल्म की कॉमेडी इसे थोड़ा ताजा बनाती है। इसमें कुछ आउटरेजस मोमेंट्स हंसाते हैं जैसे गैंग की हरकतें, लेकिन कुल मिलाकर ये रोमनजम जैसी हॉरर कॉमेडी को नहीं छू पाती।


म्यूजिक और तकनीकी पक्ष
रंजिन राज का संगीत कभी कभी बढ़िया लगता है लेकिन कोई गाना याद रहने लायक नहीं लगता। “पांडी पारा” ट्रैक 2000 के दशक के एल्बम सॉन्ग्स की याद दिलाता है, जो निर्देशन की कमजोरी को दिखाता है। अजय मंगड़ की आर्ट डायरेक्शन और सुजीत मट्टनूर के कॉस्ट्यूम डिजाइन अच्छे हैं जो 90 के दशक के माहौल को सेट करते हैं। साउंड मिक्सिंग कुछ जगहों पर क्रिएटिव है जैसे भूत के सीन में लेकिन फिर भी ये सब फिल्म को पूरी तरह बचा नहीं पाते हैं।
अंतिम फैसला
सुमति वलावु में ह्यूमर के कुछ पल हैं जो हंसाते हैं लेकिन ये एक नार्मल हॉरर फिल्म है जिसमें कुछ भी नया देखने को नहीं है। अगर आप पुराने स्टाइल की फैमिली ड्रामा पसंद करते हैं तो ये फिल्म आपकी उम्मीदों पर पास हो सकती है लेकिन हॉरर कॉमेडी की उम्मीद रखने वालों को थोड़ी निराशा हो सकती है।
फिल्मीड्रिप रेटिंग 3/5
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