रम रेड्डी के निर्देशन में बनी फिल्म जुगनुमा 12 सितंबर 2025 से सिनेमाघरों में रिलीज़ कर दी गई है। यहाँ मनोज बाजपेयी के साथ दीपक डोबरियाल, प्रियंका बोस, तिलोत्तमा शोमे देखने को मिलेंगे। रिलीज़ से पहले यह कई इंटरनेशनल फेस्टिवल का हिस्सा भी बनी है जहाँ इसे बहुत सराहा गया था। जिन दर्शकों को पहाड़ों में रहना पसंद है, वादियों की शांति का अहसास करना है, उनके लिए यह एक परफेक्ट फिल्म हो सकती है जो आजकल की फिल्मों से बिल्कुल अलग है। यहाँ कहानी देव और उसकी फैमिली की दिखाई गई है। आइए जानते हैं अपने रिव्यू के माध्यम से कि कैसी है ये फिल्म, क्या यह फिल्म सबके लिए है या फिर सिर्फ आर्ट दर्शकों की पसंद ही बन सकती है।
कहानी
कहानी देव यानी मनोज बाजपेयी पर आधारित है जो एक बड़ा जमींदार है। इनके पास 5 हज़ार एकड़ की जमीन है जिनमें सेब और अन्य फल उगाए जाते हैं। कहानी बेस है 1989 में उत्तराखंड के ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर, जहाँ देव अपने परिवार के साथ रह रहा होता है। ट्विस्ट उस समय आता है जब देव के फलों के बागानों में अचानक से आग लगना शुरू हो जाती है। अब ये आग कौन और क्यों लगा रहा है, यही कहानी फिल्म में आगे देखने को मिलती है। 16 एमएम पर शूट की गई यह 1 घंटा 58 मिनट की फिल्म मुझे ऐसा लगता है कि सिर्फ और सिर्फ फिल्म फेस्टिवल के लिए ही बनी है। आम दर्शक इस तरह की आर्ट फिल्मों से रिलेट नहीं कर पाते। जुगनुमा को अगर सिनेमाघरों में न रिलीज़ करके सीधे ओटीटी पर रिलीज़ कर दिया जाता तो अच्छा रहता। क्योंकि ये बॉलीवुड फिल्मों के जैसी चमक-दमक वाली फिल्म नहीं है। जुगनुमा एक स्लो पेस में चलने वाली फिल्म है। पर हाँ, इसे मनोज बाजपेयी की अब तक की बेस्ट परफॉर्मेंस वाली फिल्म बोला जा सकता है। आज का समय है सोशल मीडिया का, जहाँ हर 30 सेकंड में दर्शकों को कुछ चटपटा न दिखा तो वो रील बदल देते हैं। ऐसे में महँगा टिकट खरीदकर इस तरह की आर्ट फिल्मों को देखने भला कौन ही जाएगा।
पॉज़िटिव पॉइंट
लोक कथा पर आधारित इस फिल्म की कहानी अच्छी है। यह एक आर्ट फिल्म है जो इसे देखकर महसूस भी होता है। मनोज बाजपेयी का शानदार परफॉर्मेंस, मोहन के कैरेक्टर में दीपक डोबरियाल का परफेक्ट रोल, शानदार पहाड़ों का सिनेमैटिक एक्सपीरियंस, साथ ही फिल्म की एडिटिंग जो पुराने समय की याद दिलाती है। अगर आपको स्लो कहानी देखना अच्छा लगता है तब ही आप इस फिल्म को देखने जाएँ।
निगेटिव पॉइंट
फिल्म को कुछ ज़्यादा ही लंबा खींचा गया है, जहाँ फिल्म एक घंटे में भी दिखाई जा सकती थी। बेमतलब स्लो सीन को दिखाकर इतना लंबा खींचा गया है। सिनेमाघरों में बैठकर बेमतलब के सीन देखकर दर्शक बोर हो जाते हैं। ओटीटी पर रिलीज़ हो तो इसे आसानी से स्किप भी किया जा सकता है। लोक कथा पर आधारित यह फिल्म काफी प्रेडिक्टेबल है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है कि आगे क्या होने वाला है। जब सिनेमाघर में बैठे हुए दर्शक यह जानते हैं कि अंत में क्या होने वाला है तो फिर बेवजह फिल्म को इतना लंबा खींचने की क्या ज़रूरत थी।
निष्कर्ष
क्लाइमेक्स में जिस तरह से इसका अंत किया गया है, वो सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर ऐसा कैसे हुआ। यहाँ अगर चीज़ों को थोड़ा और एक्सप्लेन करके दिखाया जाता तो ज़्यादा अच्छा रहता। बहुत सी चीज़ों को सही से एक्सप्लेन नहीं किया गया है। यहाँ किसी भी तरह का एडल्ट या वल्गर चीज़ों का इस्तेमाल नहीं हुआ है, जिससे इसे परिवार के साथ देखा जा सकता है। मेरी तरफ से इस फिल्म को दिए जाते हैं 5 में से 3 स्टार की रेटिंग।
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